दीनानाथ आज अन्य दिनों की तुलना में काफी उत्साहित दिख रहा था। उसका कारण भी साफ था, सवेरे-सवेरे अखबार में उसे एक खबर पढ़ने को मिली थी कि सरकार हाईस्कूल, इंटर तक पढ़े शिक्षित बेरोजगारों को एक लाख रुपये तक का कर्ज देगी, जिसमें पच्चीस प्रतिशत की धनराशि चुकता भी नहीं करनी होगी। इस खबर को जिस-जिस बेरोजगार ने पढ़ा, उसी का रक्त-संचार बढ़ गया। फिर दीनानाथ तो पिछले काफी दिन से शहर जाने की तैयारी कर रहा था। यह खबर पढ़कर उसे लगा कि वह गाँव में ही रोजगार पा जाएगा। फिर उसकी गरीबी कुछ हद तक दूर हो सकेगी।
यूँ दुनियादारी के मामले में दीनानाथ काफी समझदार और परिपक्व था। कुछ तो घर की गरीबी और उसकी जाति ने उसे दुनियादार बना दिया था। आखिर बापू की इस गरीबी और जाति ने उसे कदम-कदम पर खून के आँसू, अपमान, हिकारत की दुनिया में जीना है, यही सब कुछ सिखाया था। उसे यह भी अच्छी तरह पता था कि सरकार द्वारा निर्मित हर एक जनहित योजना कागज से चलकर कागज पर ही खत्म हो जाती हैं। आखिर ये कैसी योजनाएँ और विकास के कार्यक्रम होते हैं और किसकी गरीबी दूर करते हैं! उसे कई बार बड़े-बूढ़ों का यह कहना काफी ठीक लगता था कि सरकार की हर योजना कुआँ होती है, जिसमें क्या-क्या समा जाए, कुछ पता ही नहीं?
फिर भी उसे लगा कि अखबार में छपी इस सरकारी योजना के संबंध में कुछ विस्तार से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। जेठ की तपती चिलचिलाती दोपहरी, जिसमें दूर-दूर तक रास्ता भी सुनसान रहता है, कोई पशु-पक्षी तक नहीं दिखता और न ही कोई आदमी, ऐसी दोपहरी में वह पसीने से लथपथ ग्राम विकास अधिकारी के पास पहुँचता है और उन्हें रामजुहार करता है। ग्राम विकास अधिकारी थोड़ा भन्नाए-से अंदाज में उससे पूछता है कि क्या बात है कैसे आए हो? दीनानाथ एकदम चापलूसी वाले अंदाज से पूछता है, 'साहब कौनव शिक्षित बेरोजगारन के ताईं योजना आई है?'
'देखो, भाई, योजना वगैरह के संबंध में परसों आकर पता करना। अभी तो मैं तुरंत ही डी.एम. साहब की मीटिंग में जा रहा हूँ।' इतना कहते हुए ग्राम विकास अधिकारी जीप में बैठे और चले गए।
मीरपुर में है दीनानाथ का घर। ब्लॉक से पाँच किलोमीटर दूर, सरयू नदी के किनारे। वह दलित जाति का ऐसा अभागा युवक है, जिसके जन्मते ही उसकी माँ लोक-लाज के डर से गाँव के छोर पर स्थित पोखर किनारे फेंक आई थी। फिर वह एक निःसंतान महतो काका की औलाद के रूप में पला। वैसे गाँव के कई बुजुर्गों का कहना था कि दीनानाथ गाँव के बाबू साहब उर्फ लंबरदार विक्रम सिंह की नाजायज संतान है। बुजुर्गों को पता था कि गाँव की सभी युवा बहू-बेटियों को विक्रम सिंह ने खराब किया था। कभी न कभी, किसी न किसी बहू-बेटी को ठाकुर के लठैतों द्वारा अगवा कर लिया जाता और फिर विक्रम सिंह की हवस पूरी करने के बाद, लूटी-पिटी हालत में गरीब घरों की बहू-बेटियाँ वापस लौट आतीं। अपनी देह पर अपमान और कोख में अनचाहा बीज लेकर। इसी अवैध संपर्क के प्रभाव से अकसर पैदा हेाती नाजायद संतानें, जिन्हें लोक-लाज के भय से कई बार अनब्याही माँएँ अपने ही रक्त-मांस से सिंचित नवजात शिशुओं को फेंक आतीं पोखर के किनारे। कभी ऐसा भी होता था कि कोई बहू-बेटी यह अपमान बर्दाश्त न कर पाने की स्थिति में कुएँ, तालाब या नहर में डूबकर खुदकुशी कर लेती थीं।
महतो परिवार की गरीबी में किसी तरह दीनानाथ का बचपन बीता। तमाम अभावों के बीच वह पढ़ा जरूर, मगर दसवीं कक्षा पास नहीं कर पाया। उसे कई बार लगता था कि पढ़ने से ज्यादा जरूरी है पेट की आग बुझाने का इंतजाम करना। कई रातों में जब भुने आलू खाकर और पानी पीकर उसे लगभग भूखे पेट सोना पड़ा तो लगा कि यह आग तो चूल्हे की आग से भी ज्यादा धधकती है। चूल्हे की आग तो पानी डालने पर शांत हो जाती है किंतु पेट की आग तो बिना भरपेट खाए बुझती ही नहीं। दीनानाथ सोचता है कि मीरापुर की आधी आबादी तो उसी के जीवन-स्तर जैसी है। मुश्किल से आठ-दस घर ठाकुरों के, पाँच घर पंडितों के और बाकी में कुर्मी, अहीर, जुलाहा होंगे। मगर ऊपर वाले का अन्यायी विधान कि गाँव पर हावी हैं - ठाकुर और पंडित। ठाकुर और पंडित का काटा पानी भी नहीं माँगता, इतने विषधर हैं ये।
ग्राम विकास अधिकारी के जीप पर बैठकर चले जाने के बाद दीनानाथ फिर उसी दोपहरी में उल्टे पाँव गाँव की तरफ लौट पड़ा। दीनानाथ सुबह चना-चबेना करके चला था, जबकि इस वक्त दोपहर के दो बजे थे। उसे अब पेट में भूख के दर्द की कचोट महसूस हो रही थी। उसे इन सरकारी अफसरों पर बड़ा क्रोध आया - जो हैं तो जनता की सेवा के लिए, पर सेवा क्या, ये तो उल्टे जनता से सेवा करा रहे हैं। इसके अलावा ये सरकारी अफसर ठाकुरों और पंडितों का साथ देकर, उस जैसे दलित लोगों का खून चूस रहे हैं। उन्हें जोंक या खटमल कहा जाए तो बुरा नहीं। वह मन ही मन सोचता है। इस वीरान रास्ते पर दूर तक कोई साया तक नहीं है। रास्ते में एक नल देखकर, जो एक प्राथमिक पाठशाला में लगा था, रुककर दीनानाथ अपनी प्यास बुझाता है और थकान एवं निराशा- भरे कदमों से फिर गाँव की ओर चल पड़ता है।
घर पहुँचता है तो देखता है कि घरवाली पारबती बरामदे में बैठी उसका इंतजार कर रही है। वह सहसा उससे पूछती है, 'आज तो बड़ी देर लाग गय?'
'का करी! वे कमजात सरकारी अफसर अब दूसरे दिन बुलाइन हैं। उन्हें का मालूम कि यही लू और दुपहरिया मा फिरि दस कोस गोड़ तुड़ावै का पड़ै!'
दीनानाथ जब तक हाथ-पैर धोता है तब तक पारवती सूखी रोटियाँ, आलू का भरता, एक टुकड़ा प्याज और हरी मिर्च रख देती है। रोटी का कौर रह-रहकर उसके गले में अटक जाता है। दीनानाथ किसी तरह उसे निगलता है और अपनी गरीबी को सोचकर भीतर ही भीतर रोता भी जाता है।
दूसरे दिन दीनानाथ फिर ग्राम विकास अधिकारी के पास जाने के लिए निकला, मगर वे उसे विक्रम सिंह की दालान में ही मिल जाते हैं। वह उनसे दंडवत प्रणाम करता है।
'सरकार, चक्की लगावय की खातिर सोचित हन।' कहते हुए दीनानाथ मानो और झुक गया है।
ग्राम विकास अधिकारी ने अपने बैग से फार्म निकाला और उसे दीनानाथ की तरफ बढ़ाते हुए कहा, 'यह रहा फार्म, इसे भरने के बाद ग्राम प्रधान से प्रमाणित कराकर, राशन कार्ड की प्रमाणित फोटो कॉपी और दसवाँ दर्जा पास करने का प्रमाणपत्र, चरित्र-प्रमाणपत्र, जन्मतिथि प्रमाण-पत्र के साथ मुझे मिलना। इस फार्म की फीस निकालो, पचास रुपया!'
दीनानाथ की जेब में जतन से सँभाला गया एक सौ का बँधा हुआ नोट था, जिसे बाहर निकालते ही अधिकारी महोदय ने झटक लिया।
अगले दिन दीनानाथ किसी तरह कॉलेज पहुँचा और अपनी जन्मतिथि तथा दसवीं पास होने का प्रमाण-पत्र उसने हासिल कर लिया। सुबह से इंतजार करते-करते शाम चार बजे उसका नंबर आया। मगर अभी भी चरित्र प्रमाण-पत्र बाकी था। खैर, कॉलेज के बाबुओं को चाय-पानी कराकर उसने वह प्रमाणपत्र भी हासिल कर ही लिया। घर आते समय वह सोच रहा था कि सरकार भी कितनी अजीब है। आखिर ऐसे चरित्र प्रमाण-पत्र से क्या फायदा जिसे अपराधी भी आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो चला था, मगर फिर भी आज उसके चेहरे पर काफी हद तक काम निपट जाने का संतोष झलक रहा था।
दूसरे दिन दीनानाथ सवेरे ही चना-चबेना कर सारे कागज-पत्तर लेकर अधिकारी महोदय से मिलने ब्लॉक के पीछे बने उसके क्वार्टर में जा पहुँचता है। दीनानाथ को घर पर आते देख ग्राम विकास अधिकारी की भाव-भांगिमा बदल जाती है। वह बड़ी हिकारत की दृष्टि से उसे घूरता है और कहता है - 'महात्मा गांधी और दूसरे नेताओं ने तुम दलितों का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रखा है। मेहनत-मजदूरी करोगे नहीं और चले हो चक्की लगाने अरे भई, सरकारी काम करने का समय होता है। तुम सबने मेरे घर को क्या खालाजी का घर समझ रखा है? जब देखो तब बिना टाइम का ध्यान रखे आ जाते हैं तंग करने। खैर, आ गए हो तो जरा पास के हैंडपंप से तीन-चार बाल्टी पानी खींच लाओ।'
उसे अपनी परिस्थिति पर बड़ा अफसोस हुआ। फिर वह सोचने लगा कि यदि किसी तरह कर्जा मिल गया तो चक्की लगाने से कम से कम उसकी गरीबी-भुखमरी तो दूर हो जाएगी।
काफी देर तक बाट जोहने के पश्चात अधिकारी महोदय आए और उन्होंने उसके कागज प्रमाण-पत्र आदि देखे। फिर बोले, 'तुम बारह बजे तक ग्रामीण बैंक पहुँचो, मैं वहीं आ रहा हूँ।'
बैंक पहुँचने के कुछ ही देर पश्चात अधिकारी महोदय भी वहाँ पहुँच गए। जल्दी ही वे उसे लेकर ग्रामीण बैंक प्रबंधक के कमरे में खड़े थे।
'तुम्हारा ही नाम दीनानाथ है?' बैंक मैनेजर ने पूछा।
'जी हाँ, साहब!'
'किस काम के लिए कर्ज लेना चाहते हो?' बैंक मैनेजर ने उससे अगला सवाल किया।
'साहब, चक्की लगावय की खातिर, साथ मा तेल पेरय कय मशीन।'
सामने की दुकान से फोटो खिंचवाकर पासपोर्ट साइज की तीन कॉपी और उस दुकान, जहाँ से मशीन खरीदनी हो, कोटेशन बनवाकर लाने के लिए कहा गया दीनानाथ को। इसके अलावा ब्लॉक के दूसरे बैंकों से नो डयूज (कोई कर्ज बाकी नहीं) का प्रमाण-पत्र भी।
दीनानाथ सोचता है कि सरकार भी कितने विचित्र, किंतु सत्य नियम बनाए हैं। बैंक के भीतर पहली बार प्रवेश करने वाला व्यक्ति इलाके के हर बैंक से लिखाकर लाए कि उस पर कोई कर्ज बाकी तो नहीं है! बैंक वाले ऐसे में हिकारत से कहेंगे ही कि आज नहीं, कल आना। उसे लगा कि सरकार खूब अपमानित करके ही लोगों को कर्ज देती है। ऊपर से कर्ज लेते वक्त दो, लोगों को 'गिरांटर' बनाओ। वे न मानें तो उनकी अलग से सेवा करो। वाह रे सरकारी नियम!
किसी तरह जब उसने 'नो ड्यूज' प्रमाण-पत्र ब्लॉक के सभी बैंकों से प्राप्त कर लिया, तो प्रश्न आया उसकी पहचान यानी आइडेंटीफिकेशन का कि यही दीनानाथ वह दीनानाथ है जो कर्ज ले रहा है। खैर, प्रमाणीकरण का यह काम ग्राम विकास अधिकारी ने किया। साथ ही कर्ज के लिए जानकारी वाला फार्म भी उसने भरा, जिसमें नाम, जाति, पता, कुल रकबा, वार्षिक आय, परिवार की सदस्य संख्या, परिवार नियोजन अपनाया या नहीं, दो 'गिरांटर' का नाम और अंत में शपथ-पत्र कि 'मैं बैंक का यह कर्जा समय पर सूद सहित लौटाऊँगा, इसका दुरुपयोग नहीं करूँगा, अगर दुरुपयोग करता पाया जाऊँ तो बैंक को अधिकार है कि वह कार्यवाही के जरिए मेरी जमीन और चक्की आदि कुर्क कर ले।' यह फार्म ग्राम विकास अधिकारी स्वयं भर रहे थे। फिर उन्होंने इशारा किया कि भाई, बैंक वालों के लिए चाय-समोसा, पान-सिगरेट का तो कुछ इंतजाम करो, साहब लोग तुम्हारा ही काम कर रहे हैं।
दीनानाथ बाहर की दुकान पर बैंक कर्मचारियों और ग्राम विकास अधिकारी की संख्या गिनकर चाय-समोसे का आर्डर दे आया। वह मन ही मन सोच रहा था कि अभी कर्ज मिला नहीं और लूट कितनी पहले ही शुरू हो गई। कुछ देर बाद जब 'गिरांटर' के रूप में उसे दो ग्रामवासी आ गए तो बैंक मैनेजर ने उनके दस्तखत करा लिए। फिर दीनानाथ को बुलाकर कहा, 'देखो, तुम्हारी बैंक की जो भी कार्यवाहियाँ हैं, वे सब निपट गई हैं, अब तुम फार्म पर अँगूठा लगाओ।'
अरे नहीं, साहेब, हम दस्तखत कय लेईत है।' और उसने मैनेजर के कहे अनुसार कागजों पर कम से कम बारह स्थानों पर दस्तखत कर दिए।
'बैंक के बाहर पांडेयजी की जो पान की दुकान है, वहाँ पर मशीनरी स्टोर वाले जायसवाल जी बैठे होंगे, यहाँ बुला लाओ। तुम्हारा कोटेशन अभी बन जाएगा। जायसवाल जी की मशीनरी की एजेंसी है। तुम्हें शहर में कहीं धक्के नहीं खाने पड़ेंगे इस काम के लिए।'
मामूस दीनानाथ मैनेजर की चालाकी और धूर्तता से दूर उनके रचे चक्रव्यूह में शामिल हो गया।
दीनानाथ ने बाहर आकर जायसवाल जी का पता किया और उन्होंने कुछ ही मिनटों में कोटेशन तैयार कर दीनानाथ के हाथों में पकड़ा दिया जिसे उसने ले जाकर बैंक प्रबंधक को सौंप दिया । प्रबंधक ने दीनानाथ को सोमवार के दिन आने को कहा।
दीनानाथ को लग रहा था कि अब तो सरकारी कर्ज मिला समझो। बस, बिजली का कनेक्शन मिलने का काम रह गया।
अगले दिन वह पावर कनेक्शन के लिए खसरा-खतौनी, राशन कार्ड और सब अन्य कागजात लेकर विद्युत उपकेंद्र पहुँचा। जब उसका नंबर आया तो उसने लाइन इंस्पेक्टर ओझा जी से मुलाकात की। उन्होंने उसकी अर्जी ले ली और एक लाइनमैन को बुलाकर पूछा कि इसके घर तक बिजली कनेक्शन के लिए कितने खंभे लगाने पड़ेंगे? लाइनमैन ने हिसाब जोड़कर बताया कि पाँच खंभे लगाने होंगे।
लाइन इंस्पेक्टर ने तत्काल दीनानाथ से कहा कि बिजली कनेक्शन की निर्धारित रकम सरकारी कोषागार में जमा कराओ और उसकी रसीद संलग्न करो तथा ऊपर से दो हजार रुपये खर्च करोगे, तब पावर कनेक्शन मिल सकेगा। पावर कनेक्शन दिए जाने पर फिलहाल रोक है।
'ठीक है, साहेब!' कहकर दीनानाथ बिजली दफ्तर से लौट पड़ा। वह मन ही मन हिसाब लगा रहा था कि दो हजार घूस और एक हजार कनेक्शन शुल्क का प्रबंध कैसे किया जाए?
अगले सोमवार को दीनानाथ बैंक जाता है तो मैनेजर साहब उसे बुलाकर कर्ज के चैक की रसीद पर दस्तखत कराकर चैक अपने पास रख लेते हैं, कहते हैं, 'कल मंत्रीजी आ रहे हैं, वही बाँटेगे।'
अगले दिन आयोजित सरकारी ऋण मेले में दीनानाथ को कर्ज का चैक मिलता है तो वह फूला नहीं समाता। सैकड़ों किसानों, बेरोजगारों को ऋण देकर प्रदेश के मंत्री कार में बैठकर फुर्र से उड़ जाते हैं।
अब कुछ पाठकों को जिज्ञासा होगी कि दीनानाथ को बिजली कनेक्शन मिला या नहीं, उसकी चक्की लगी या नहीं?
तो पाठकों! दीनानाथ पाँच माह तक दौड़ता रहा। इसके बावजूद वह बिजली का कनेक्शन नहीं लगवा पाया। मशीनरी स्टोर वाले ने उसे आधा सामान देकर पूरे सामान के दाम पर दस्तखत करा लिए और कहा कि बाकी सामान बाद में आकर ले जाना।
कर्ज लेने के बाद जब छठा महीना शुरू हो गया, तो नियमित रूप से किस्तें जमा कराने के लिए बैंक का नोटिस आ गया।
दीनानाथ को काफी बाद में यह पता चला कि ग्राम विकास अधिकारी, बैंक मैनेजर का रिश्तेदार था, उसने बेरोजगारों को महँगा सामान दिलवाकर खूब ठगा। सामान भी एकदम घटिया था। एक और बेरोजगार, जो उससे थोड़ा ज्यादा इंटर तक पढ़ा था, उसने उसे बताया कि बैंक मैनेजर का दस परसेंट, ग्राम विकास अधिकारी का पाँच परसेंट, मशीनरी वाले जायसवाल का दस परसेंट सब पहले से तय है...!
पाठकों, कर्ज लेने के बाद जब दीनानाथ की चक्की यथार्थ में आटा न पीस सकी तो निराश होकर वह घर छोड़कर भाग गया। अब कर्ज-वसूली के लिए बैंक दीनानाथ को तलाश रहा है। इसके कुछ दिनों के पश्चात देश के प्रधानमंत्री का मुस्कराता हुआ चेहरा और वक्तव्य छपा था - 'देश के दस लाख शिक्षित बेरोजगारों को स्वतः रोजगार प्रदान किया गया है!'